अभिज्ञान शाकुंतलम Part V

                                                               शकुंतला और दुष्यंत 

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राजा नहुष के पुत्र ययाति के की दो पत्नियों में एक देवयानी दूसरी शर्मिष्ठा थी। शर्मिष्ठा से दुह ,अनु और पुरु हुए। पुरु से पुरु वंश का उदय हुआ। अब आप पुरु वंश की 18वीं पीढ़ी के राजा दुष्यंत की कहानी सुने ,राजा दुष्यंत पुरु वंश के सबसे प्रतापी राजा थे। बहुत से म्लेच्छ प्रदेशो पर इनका अधिकार था। इनके राज्य में कोई वर्ण शंकर न था ,प्रजा सुखी थी समय पर वर्षा होती थी कोई पाप नहीं करता था न कोई चोरी तक नहीं करता था।
 एक बार राजा दुष्यंत अपनी चतुरङ्गिनी सेना लेकर जंगल और जा रहे जंगल पार कर लेने के बाद उन्हें एक उपवन दिखाई दिया ,उपवन के वृक्ष हरे थे और उन पर पुष्प और फूल लगे थे जिनसे मधुर सुगंध आ रही थी। उपवन के पास मालिनी नदी बाह रही थी। दूर तक पृथ्वी पर घास थी ,और पक्षी चहक रहे थे ,उस उपवन के पास एक आश्रम था ,शांतुन उस आश्रम तक गए। यह आश्रम कश्यप गोत्र के कण्व ऋषि का था।
 राजा ने अपने मंत्रियों को आश्रम के द्वार पर ही रोक दिया और आश्रम में प्रवेश किया। वहां उस समय कण्व ऋषि उपस्थित नहीं थे। राजा ने जोर से आवाज दी अंदर कौन  है ?आवाज सुनकर एक सुंदरी कन्या जो तपस्वनी के वेश थी , बहार निकल कर आयी ,उसने सम्मान पूर्वक राजा का स्वागत किया और परिचय पूछा राजा ने उत्तर दिया " हे तपस्विनी मैं ऋषि  कण्व से मिलने के लिए आया हूँ 
,सुंदरी ने उत्तर दिया कि कण्व ऋषि इस समय आश्रम से बाहर  गए हुए है। शांतुन ने उस कन्या से पूछा  कि आप कोन है ? सुंदरी  ने कहा मै कण्व की पुत्री हूँ। तब शांतुन ने कहा की विश्वबंधु कण्व तो ब्रह्मचारी है ,सूर्य पूर्व से निकलना छोड़ दे किन्तु कण्व धर्म से विचलित नहीं हो सकते आप कण्व की पुत्री कैसे हो सकती हो ?तब उस सुंदरी ने कहा की मेरा नाम शकुंतला है और मै मेनका अप्सरा की पुत्री हूँ मेरे पिता विश्वामित्र है ,जब ऋषि विस्वामित्र उच्चकोटि  की तपस्या कर रहे थे तो इंद्र ने विश्वामित्र की  तपस्या भंग करने के लिए मेनका नाम की अप्सरा को स्वर्ग से भेजा था ,जिससे मेरा जन्म हुआ इस तरह से मेरे पिता विस्वामित्र और माता मेनका है। क्योकि मेनका मुझे वन में पक्षियों [शकुंतो ]के बीच छोड़कर चली गई थी और मुझे इन  पक्षियों [शकुंतो ] ने ही पाला था इसलिए मेरा नाम शकुंतला है। एक बार कण्व ऋषि ने मुझे इन पक्षियों से निकाल कर खुद पालन किया अब मैं कण्व ऋषि के आश्रम मे हूँ। 
 दुष्यंत ने कहा की तुम ब्राह्मण कन्या नहीं हो तुम राजकन्या हो अतः तुम मुझसे गंधर्व  विवाह कर लो ,शकुंतला ने कहा की मेरे पिताजी इस समय आश्रम पर नहीं है वे आते ही होंगे आप उनसे पूछ ले। इसपर राजा ने कहा कि शकुंतला अच्छा हो कि तुम ही मुझे वरण कर लो। शकुंतला ने शर्त रखी कि मेरे जीवन काल में ही मेरा पुत्र राजकुमार बने तो मुझे विवाह स्वीकार है ,राजा ने शकुंतला को स्वीकृत दे दी।
 राजा  दुष्यंत इसके बाद अपनी राजधानी वापस आ गए। 
जब कण्व ऋषि आश्रम पर आये तो शकुंतला भयवश और लज्जा के कारण कण्व के सामने नहीं आयी तब कण्व ने ध्यान और योग से पता कर लिया कि  राजा  दुष्यंत यंहा आये थे। कण्व ने शकंतुला को बुलाकर कहा की राजकन्या को गंधर्व विवाह की अनुमति है तुमने कोई पाप नहीं किया है ,तुमसे जो पुत्र जन्म लेगा वह महान प्रतापी शासक होगा जिसका नाम भरत  होगा।
 कुछ समय बाद आश्रम पर ही शकुंतला पुत्र भरत का जन्म हुआ
 अब आगे की कथा सुनिए की किस प्रकार राजा शांतुन भरत और शकुंतला को  पहचानने से  मना करते है और अपनी राजधानी में शकुंतला को अपनाने से अस्वीकार करते है। 
क्रमशः 
भरत ,दुष्यंत और शकुन्तला की कहानी को महाकवि कालिदास ने भी अभिज्ञान शाकुंतलम  नामक नाटक में लिखा है। कालिदास उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के दरबारी कवि थे. कालिदास ने पूर्व की कहानी में दुर्वाशा श्राप , दुष्यंत की अंगूठी ,मछली के पेट से अंगूठी निकलना आदि  जो पूर्व की कहानी में नहीं वह कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में जोड़ा है। अभिज्ञान शाकुंतलम में कहानी इस तरह से है -
              राजा दुष्यंत शकुंतला को अंतिम समय उसके आश्रम में छोड़कर अपनी राजधानी जाते समय एक अंगूठी शकुंतला को देते है ,इस अंगूठी  पर हस्तिनापुर का राजकीय चिन्ह से बना था। शकुंतला इस अंगूठी को अपने पास सँभाल कर रखती है। एक दिन ऋषि दुर्वाशा  कण्व के आश्रम में आते है ,उस समय शकुंतला राजा दुष्यंत की यादों  में खोयी हुई थी तभी दुर्वाशा ने आवाज़ दी पर शकुंतला सुन न सकी.क्रोध में आकर दुर्वाशा ऋषि ने श्राप दिया की तू जिस के स्मरण में खोई है ,वह तुझे भूल जाये ,जब शकुंतला दुखी होकर दुर्वाशा से क्षमा मांगती है तो दुर्वाशा उसे वरदान देते है की जब शकुंतला राजा को उसका कोई प्रतीक चिन्ह दिखाएगी तो राजा को पुरानी बात याद आ जाएगी। 
           किन्तु शकुंतला दुर्भाग्य फिर उसके जीवन में आता है ,एक दिन जब वह तालाब में हाथ धो रही थी तभी  राजा की दी हुई अंगूठी पानी में गिर जाती है। अंगूठी को एक मछली अपने मुँह में निगल लेती है। इस तरह से शकुंतला अपनी अंगूठी को  खो देती है। 
              समय बीतता है ,शकुंतला का पुत्र भरत  बड़ा हो जाता है,भरत बहुत ही वीर और निर्भीक थे ,वे बचपन में ही ऋषि के आश्रम पर खेलते और शेरो को अपने साथ खिलाते ,शेरो के मुँह में अपना हाथ डालकर उसके दांत गिनते और उन्ही  की पीठ पर बैठ कर घोडा बना लेते लेकिन भरत शेरों से डरते नहीं , वर्षो बीत गए अब भरत भी बड़े हो गए थे।
अब शकुंतला ने सोचा कि भरत को उनके पिता से मिलाना चहिये अतः उचित समय जान कर शकुंतला भरत को लेकर हस्तिनापुर राजधानी में राजा दुष्यंत से मिलने उसके दरबार  पहुंची और अपना परिचय दिया और सम्मान पूर्वक कहा " राजन मैं शकुंतला हूँ आपकी पत्नी और यह बालक आपका पुत्र है !कृपया इसे स्वीकार करे

  इस बालक को आप अपना  युवराज बनाए,और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करे  "  राजा दुष्यंत ने कहा " स्त्री तू कौन है ? और किसकी पत्नी है ? तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे की कि तू स्वयं को राजा की पत्नी बोल रही है और इस बालक को मेरा पुत्र बोल रही है ?"मेरा तुझसे  किसी भी प्रकार का कोई भी धर्म ,अर्थ काम का कोई सम्बन्ध नहीं है। राजा की बात सुनकर शकुंतला बेहोश हो गयी और नीचे जमीन पर गिर पड़ी ,दरवारी आश्चर्य से शकुंतला को देखने लगे।
  शकुंतला  उठकर दरबार से चलने लगी चलते चलते वह राजा से बोली कि  चीटीं भी अपने अंडो की रक्षा करती है ,यह सूर्य ,चंद्र ,हवा ,जल यह सब धर्म के साक्षी है ,ऋषियों में भी ऐसी शक्ति नहीं है कि बिना स्त्री के पुत्र को जन्म दे सके ,मनुष्य के वृद्धावस्था में पत्नी ही सहयोग करती है। पिता पुत्र के चेहरे में अपना प्रतिबम्ब देखता है जैसे दर्पण में मुख देखता है ,धूल  से लथपथ अपने पुत्र को उठाने में जो सुख मिलता है वह स्वर्ग से भी अधिक होता है ,मैंने महीनो तक इस पुत्र को अपने पेट में रखा है ,जन्म लेते समय आकाशवाणी हुई थी की यह बालक सौ अश्वमेघ यज्ञ  करेगा ,मैंने जरूर कोई पिछले जन्म में  पाप कर्म किये होंगे जो मुझे यह दंड मिल रहा है ,पहले जन्म लेते ही माँ जंगल में छोड़कर चली गई थी अब आप छोड़ रहे है "
 पर राजा दुष्यंत को श्राप के कारण कुछ याद नहीं आता ,शकुंतला बहुत याद दिलाती है पर राजा को कुछ याद नहीं आता ,शकुंतला बहुत रोती है और दुखी होकर वापस आश्रम आ जाती है। 
बहुत समय बाद एक मछुआरे को एक मछली मिलती है जब मछली को काटा जाता है तो उसके पेट से एक अंगूठी निकलती है जिस पर राजा का चिन्ह बना था। मछुआरा उस अंगूठी को राजा को वापस कर देता है क्योकि वह अंगूठी राजकीय थी। अंगूठी को देखते ही राजा को शकुंतला की बात याद आ जाती है और वह आश्रम से शकुंतला को सम्मानपूर्वक महल में ले आता है।
शकुंतला की बातो को सुनकर राजा ने कहा "मुझे सब याद है ,मै तुम्हे स्वीकार करता हूँ ,मैंने जो कुछ कहा जानबूझ कर कहा  अब यह बात सभी को मालूम पड़ गई है अतः मुझे अब तुम्हे स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है यदि में पहले ही स्वीकार कर लेता तो मंत्री और जनता कहती की राजा अपने भोग और कामना के लिए तुम्हे अपना रहे है पर तुमने अपनी बात कह कर मेरा पक्ष मज़बूत कर दिया है। राजा की बात का समर्थन सभी पुरोहित ,मंत्री एवं आचार्यो ने किया और शकुंतला और भरत  अब राजमहल में रहने लगे 
क्रमशः  

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