भरत Bharat Part U
कण्व ऋषि के आश्रम से वापस आकर दुष्यंत हस्तिनापुर में अपना राजकाज देखने लगे।
इधर कण्व ऋषि के आश्रम पर कुछ समय बाद एक बालक का जन्म शकुंतला से हुआ जिसका नाम भरत रखा गया ,भरत बहुत ही वीर और निर्भीक थे ,वे बचपन में ही ऋषि के आश्रम पर खेलते और शेरो को अपने साथ खिलाते ,शेरो के मुँह में अपना हाथ डालकर उसके दांत गिनते और उन्ही की पीठ पर बैठ कर घोडा बना लेते लेकिन भरत शेरों से डरते नहीं , वर्षो बीत गए अब भरत भी बड़े हो गए थे।
अब शकुंतला ने सोचा कि भरत को उनके पिता से मिलाना चहिये अतः उचित समय जान कर शकुंतला भरत को लेकर हस्तिनापुर राजधानी में राजा दुष्यंत से मिलने उसके दरबार पहुंची और अपना परिचय दिया और सम्मान पूर्वक कहा " राजन मैं शकुंतला हूँ आपकी पत्नी और यह बालक आपका पुत्र है !कृपया इसे स्वीकार करे
इस बालक को आप अपना युवराज बनाए,और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करे " राजा दुष्यंत ने कहा " स्त्री तू कौन है ? और किसकी पत्नी है ? तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे की कि तू स्वयं को राजा की पत्नी बोल रही है और इस बालक को मेरा पुत्र बोल रही है ?"मेरा तुझसे किसी भी प्रकार का कोई भी धर्म ,अर्थ काम का कोई सम्बन्ध नहीं है। राजा की बात सुनकर शकुंतला बेहोश हो गयी और नीचे जमीन पर गिर पड़ी ,दरवारी आश्चर्य से शकुंतला को देखने लगे।
शकुंतला उठकर दरबार से चलने लगी चलते चलते वह राजा से बोली कि चीटीं भी अपने अंडो की रक्षा करती है ,यह सूर्य ,चंद्र ,हवा ,जल यह सब धर्म के साक्षी है ,ऋषियों में भी ऐसी शक्ति नहीं है कि बिना स्त्री के पुत्र को जन्म दे सके ,मनुष्य के वृद्धावस्था में पत्नी ही सहयोग करती है। पिता पुत्र के चेहरे में अपना प्रतिबम्ब देखता है जैसे दर्पण में मुख देखता है ,धूल से लथपथ अपने पुत्र को उठाने में जो सुख मिलता है वह स्वर्ग से भी अधिक होता है ,मैंने महीनो तक इस पुत्र को अपने पेट में रखा है ,जन्म लेते समय आकाशवाणी हुई थी की यह बालक सौ अश्वमेघ यज्ञ करेगा ,मैंने जरूर कोई पिछले जन्म में पाप कर्म किये होंगे जो मुझे यह दंड मिल रहा है ,पहले जन्म लेते ही माँ जंगल में छोड़कर चली गई थी अब आप छोड़ रहे है "
इधर कण्व ऋषि के आश्रम पर कुछ समय बाद एक बालक का जन्म शकुंतला से हुआ जिसका नाम भरत रखा गया ,भरत बहुत ही वीर और निर्भीक थे ,वे बचपन में ही ऋषि के आश्रम पर खेलते और शेरो को अपने साथ खिलाते ,शेरो के मुँह में अपना हाथ डालकर उसके दांत गिनते और उन्ही की पीठ पर बैठ कर घोडा बना लेते लेकिन भरत शेरों से डरते नहीं , वर्षो बीत गए अब भरत भी बड़े हो गए थे।
अब शकुंतला ने सोचा कि भरत को उनके पिता से मिलाना चहिये अतः उचित समय जान कर शकुंतला भरत को लेकर हस्तिनापुर राजधानी में राजा दुष्यंत से मिलने उसके दरबार पहुंची और अपना परिचय दिया और सम्मान पूर्वक कहा " राजन मैं शकुंतला हूँ आपकी पत्नी और यह बालक आपका पुत्र है !कृपया इसे स्वीकार करे
इस बालक को आप अपना युवराज बनाए,और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करे " राजा दुष्यंत ने कहा " स्त्री तू कौन है ? और किसकी पत्नी है ? तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे की कि तू स्वयं को राजा की पत्नी बोल रही है और इस बालक को मेरा पुत्र बोल रही है ?"मेरा तुझसे किसी भी प्रकार का कोई भी धर्म ,अर्थ काम का कोई सम्बन्ध नहीं है। राजा की बात सुनकर शकुंतला बेहोश हो गयी और नीचे जमीन पर गिर पड़ी ,दरवारी आश्चर्य से शकुंतला को देखने लगे।
शकुंतला उठकर दरबार से चलने लगी चलते चलते वह राजा से बोली कि चीटीं भी अपने अंडो की रक्षा करती है ,यह सूर्य ,चंद्र ,हवा ,जल यह सब धर्म के साक्षी है ,ऋषियों में भी ऐसी शक्ति नहीं है कि बिना स्त्री के पुत्र को जन्म दे सके ,मनुष्य के वृद्धावस्था में पत्नी ही सहयोग करती है। पिता पुत्र के चेहरे में अपना प्रतिबम्ब देखता है जैसे दर्पण में मुख देखता है ,धूल से लथपथ अपने पुत्र को उठाने में जो सुख मिलता है वह स्वर्ग से भी अधिक होता है ,मैंने महीनो तक इस पुत्र को अपने पेट में रखा है ,जन्म लेते समय आकाशवाणी हुई थी की यह बालक सौ अश्वमेघ यज्ञ करेगा ,मैंने जरूर कोई पिछले जन्म में पाप कर्म किये होंगे जो मुझे यह दंड मिल रहा है ,पहले जन्म लेते ही माँ जंगल में छोड़कर चली गई थी अब आप छोड़ रहे है "
शकुंतला की बातो को सुनकर राजा ने कहा "मुझे सब याद है ,मै तुम्हे स्वीकार करता हूँ ,मैंने जो कुछ कहा जानबूझ कर कहा अब यह बात सभी को मालूम पड़ गई है अतः मुझे अब तुम्हे स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है यदि में पहले ही स्वीकार कर लेता तो मंत्री और जनता कहती की राजा अपने भोग और कामना के लिए तुम्हे अपना रहे है पर तुमने अपनी बात कह कर मेरा पक्ष मज़बूत कर दिया है। राजा की बात का समर्थन सभी पुरोहित ,मंत्री एवं आचार्यो ने किया और शकुंतला और भरत अब राजमहल में रहने लगी
क्रमशः
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