शंकर पार्वती और दक्ष Dakxh, Shankar & Parvati Part AG
दक्ष प्रजापति की 16 कन्याएं थी जिनमे से 13 का विवाह धर्म से हुआ ,14 वीं का अग्नि से, 15 वीं का शंकर से , 16 वीं को पितृगण को दी गई।
अब शंकर पर्वती के वारे में सुनिए
एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में बड़े बड़े ऋषि मुनि शामिल हुए जिसमे शंकर भगवान भी ने शामिल थे तभी दक्ष प्रजापति ने सभा में प्रवेश किया सभी उन्हें देखकर ब्रह्मा जी और महादेव शंकर को छोड़कर सभी देवता हाथ जोड़कर खड़े हो गए ,सभी सभासदो से सम्मान पा कर दक्ष ने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और ब्रह्मा जी के आदेश पर दक्ष भी अपने आसन पर बैठ गए , किन्तु दक्ष ने जब देखा की महादेव शंकर जी उनसे पहले ही बैठे हुए है और शंकर जी से किसी प्रकार का सम्मान न पाकर दक्ष को क्रोध आ गया और सोचा की मैंने अपनी कन्या इस शंकर को दी है यह मेरा तनिक भी सम्मान नहीं कर रहा है
तब दक्ष ने भरी सभा में शंकर का अपमान किया और कहा "यह निर्लज्ज शंकर समस्त लोकपालों की इज्जत धूल में मिला रहा है ,देखिये इस घमंडी ने सत्पुरुषों के साथ क्या किया है !बन्दर के से नेत्र वाले इस जटाजूटधारी ,भस्म [राख]धारी ,गले में सांपो की माला वाले से मेरी बेटी [सावित्री ] का विवाह हुआ है और यह मेरा अपमान करता है होना तो यह चाहिए था की यह [शंकर ] उठकर मेरा स्वागत करता किन्तु इसने मुँह से बोलकर भी मेरा स्वागत नहीं किया। मेरी पुत्री सावित्री का यह पति जिसका विवाह ब्राह्मणो के सामने मैंने किया और यह श्मशान में भूतो प्रेतों के साथ रहता है पूरे पागलो की तरह रहता है गले में नरमुंडो की माला पहनता है। मैंने ब्राह्मणो के कहने पर इसका विवाह कर दिया यह तो तमोगुणी ,और दुष्ट स्वाभाव वालो का सरदार है।
तब दक्ष ने क्रोध में आकर शंकर को श्राप दिया की यज्ञ में इस शंकर को कोई भोग भाग न मिले। लेकिन शंकर भगबान ने दक्ष से कुछ न कहा।
जब यह बात शंकर के भक्त नंदी को पता चली तो उन्होंने दक्ष को ही श्राप दे दिया कि दक्ष को जो इस मृत होने वाले शरीर को ही सब कुछ समझता है ,किसी से भी द्रोह न करने वाले शंकर से जो द्रोह करता है उस तत्वज्ञान से रहित ,कर्मकाण्डी दक्ष का सिर बकरे का हो जाय
इस बात पर ऋषि भृगु जी नंदी पर नाराज हो गए और उन्होंने कहा की जो शिव भक्त है वे पाखंडी और आचारविहीन ,शास्त्रों के विरुद आचरण करने वाले हो जाय ,मंदबुद्धि और जटाजूटधारी हो , विष्णु मत को मानने वाले ब्राह्मण दक्ष को नंदी श्राप दे रहा है ? वेदमार्ग ही लोगो के लिए कल्याणमार्ग है इसके मूल में श्री विष्णु जी है।
भृगु जी के वचन सुनकर शंकर और उनके अनुयायी उस यज्ञ से वापस अपने कैलाश पर आ गए।
बहुत समय बीत गया इधर दक्ष को सभी प्रजापतियों का अधिपति बना दिया गया।
प्रजापति दक्ष ने फिर एक वाज़पेय यज्ञ किया जिसमे उसने सभी देवी देवताओं को बुलाया किन्तु शंकर को न बुलाया। दक्ष ने सभी अतिथियों का स्वागत किया ,आकाश मार्ग से बहुत से देवी देवता दक्ष के यज्ञ में जा रहे थे और प्रसंशा में दक्ष की बातें करते जा रहे थे। तब सावित्री जो शंकर की पत्नी थी ने देखा कि मेरे पिता के यज्ञ में बहुत से यक्ष, गंधर्व देवता उस यज्ञ में भाग लेने जा रहे है। तब सावित्री ने भी शंकर से उस यज्ञ में भाग लेने का अनुरोध किया।
शंकर जी ने कहा कि मुझे दक्ष ने कोई आमंत्रण नहीं दिया है अतः मै यज्ञ में नहीं जा सकता और इसलिए तुम भी न जाओ ,इस पर सावित्री को कुछ दुःख हुआ और चिंता करने लगी कि मेरे ही पिता के यज्ञ में सभी जा रहे है और हम ही नहीं जा रहे यह सही नहीं है अतः सावित्री ने फिर जिद करके शंकर जी को चलने के लिए कहा किन्तु शंकर जी ने मना कर दिया अब सावित्री जी नाराज हो गई और स्वयं ही अकेले यज्ञ में जाने लगी ,शंकर जी ने बहुत समझया किन्तु सावित्री न मानी। तब शंकर जी ने अपने नंदी के साथ सावित्री को उनके पिता के पास जाने दिया।
जब सावित्री अपने पिता के यज्ञ में पहुंची तो उन्हें किसी ने प्रणाम नहीं किया इसपर सावित्री को दुःख हुआ और वे अपनी माँ के पास जा पहुंची। दक्ष के घर जाकर सावित्री ने अपने पिता को सब बताया और समझया की शिव ही श्रेष्ठ है और उनके चरणों में ही स्वयं ब्रह्मा जी डले रहते है सभी देवता उन्ही शिव का नाम जपते है ,वे ही सबका भला करने वाले है किन्तु दक्ष को अपने घमंड में कुछ कमी न कर सके और न अपनी गलती स्वीकार की तब सावित्री ने कहा की यदि शंकर को न बुलाया गया तो मै ऐसी यज्ञ कुंड में कूदकर जान दे दूंगी। सावित्री की प्रतिज्ञा से भी दक्ष को कुछ समझ न आया और तब भी वे शंकर से वैर माने रहे अंत में सावित्री जी यज्ञ में कूदकर अपने शरीर को भस्म कर देती है और शरीर को अग्नि में त्याग देती है ,सावित्री के सती हो जाने पर उनके अनुचर नंदी ,मणिमान वृषभ आदि कैलाश पर्वत पर आकर शिव को सन्देश देते है कि सावित्री ने यज्ञ में अपने प्राण और शरीर त्याग दिया है।
यह सुनकर शंकर को बहुत दुःख हुआ कि सावित्री ने अपने प्राण त्याग दिए है तब शंकर जी को क्रोध आता है और उनके रूद्र वीरभान दक्ष को दंड देने के लिए यज्ञ की और चल देता है। रूद्र हाथ में लिए कृपाण और लाल आंखे कर यज्ञ में तहस नहस कर देता है और दक्ष का सिर वीरभान रूद्र काट देता है। सती [सावत्री ] की माँ जब रोने लगती है तब स्वयं शंकर आकर दक्ष के कटे सिर को एक बकरी के सिर लगाकर जोड़ देते है अब दक्ष का अहंकार शांत हो जाता है और वे शंकर को प्रणाम कर अपनी गलती स्वीकार करते है ,दक्ष का सिर तबसे बकरी का ही हो गया। किन्तु अब शंकर सती के बिना अधूरे हो गए वे उनकी सती की याद में पागल हो जाते है उनके अस्थियो को गले में डालकर वे ब्रह्माण्ड में पागलो की तरह घूमने लगते है। क्रमशः
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