ध्रुव Dhruv Part AH
स्वयम्भू मनु और उनकी पत्नी शतरूपा के दो पुत्र हुए प्रियब्रत औऱ उत्तानपाद। ये दोनों ही पुत्र भगवन वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे।
प्रियव्रत के दस पुत्र हुए। उत्तानपद की दो पत्निया थी सुनीत और सुरुचि।राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे। सुनीत से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम का जन्म हुआ।
एक बार पुत्र ध्रुव अपने पिता उत्तानपाद के पास खेलने चले गए और अपने पिता की गोद में बैठने लगे तभी दूसरा भाई उत्तम आया वह भी पिता की गोद में बैठने की जिद करने लगा। पिता उत्तानपाद ने ध्रुव को गोद से हटाकर उत्तम को अपने गोद में रख लिया इस पर ध्रुव को बहुत दुःख हुआ और वह रोये हुए अपनी माँ के पास पंहुचा।
पुत्र ध्रुव की बात सुनकर माता सुनीत को बहुत दुःख हुआ। सुनीत ने पुत्र को समझते हुए कहा की हम सभी उस परमात्मा की संताने है ,वह परम पिता परमेश्वर ही सबका पिता हे। ध्रुव को यह बात बहुत जल्दी समझ आ गई ,ध्रुव अब ईश्वर को ही अपना असली पिता मानकर उसे प्राप्त करने की जिद करने लगा एक दिन ईश्वर की खोज में वह घर से निकल कर घनघोर जंगल में जाकर तपस्या करने लगा
ध्रुव के बारे में जब यह जानकारी नारद जी को मिली तो वे ध्रुव से मिलने के लिए आये। ध्रुव देखकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए और बालक समझकर तपस्या छोड़कर घर जाने की सलाह दी किन्तु ध्रुव न माने। तब नारद जी ने ध्रुव को हरी की उपासना के लिए मार्ग बताया और कहा कि तुम यमुना नदी पर मधुवन जा कर श्री हरि का भजन करो नारद जी ध्रुव को योग के नियम सयंम भी बताये ,ध्रुव ने भगवत प्राप्ति के नियम नारद से सीख कर वे मधुवन में तपस्या करने चले गए। ध्रुव भगवन विष्णु को खुश करने के लिए तपस्या करने लगे ,
इधर नारद जी ध्रुव के पिता उत्तानपाद से मिलते है और उत्तानपाद का समाचार लेते है ,उत्तानपाद अपना दुःख नारद जी को दुःख बताते है कि क्यों ध्रुव उन्हें छोड़कर चला गया है। वे ध्रुव के लिए दुखी थे। नारद जी उत्तानपाद को समझाते है कि ध्रुव प्रभाव आप नहीं जानते है ध्रुव बहुत तेजस्वी बालक है और शीघ्र ही घर वापस आ जायेगा।
ध्रुव ने इधर मधुवन और तपोवन में श्री हरि की नारद के बताये गए मार्ग के अनुसार उपासना की बहुत दिनों बाद ध्रुव ने अपने प्राण विश्वात्मा श्री हरि में लगा दिए जिससे जीवो की श्वास -प्रश्वास रुक गई। .सभी देवताओ और लोकपालों को इस से बैचेनी हुई और उन्होंने भगवान से पूछा की ऐसा क्यों हो रहा है ?तब भगवान् ने बताया कि ध्रुव ने अपने प्राण मुझमे जोड़ लिए है इसलिए संसार का श्वास प्रश्वास रुक गया है। देवताओ तुम जाओ मै ध्रुव को रोक दूंगा ,तुम डरो मत।
एक दिन श्री हरि ध्रुव के सामने आ ही गए और ध्रुव से कहा की तुम जिस पद की इच्छा कर रहे हो वह बहुत कठिनता से प्राप्त होता है फिर भी मै तुम्हे आशीर्बाद देता हूँ कि तुम संसार में जहां सप्तऋषि रहते है वहां स्थित रहोगे और सभी सप्तऋषि तुम्हारे चारो ओर ही चक्कर लगाएंगे तुम सभी नक्षत्रों के मध्य में रहोगे। जाओ अपने घर जाओ और अपने पिता की सेवा करो।
प्रियव्रत के दस पुत्र हुए। उत्तानपद की दो पत्निया थी सुनीत और सुरुचि।राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे। सुनीत से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम का जन्म हुआ।
एक बार पुत्र ध्रुव अपने पिता उत्तानपाद के पास खेलने चले गए और अपने पिता की गोद में बैठने लगे तभी दूसरा भाई उत्तम आया वह भी पिता की गोद में बैठने की जिद करने लगा। पिता उत्तानपाद ने ध्रुव को गोद से हटाकर उत्तम को अपने गोद में रख लिया इस पर ध्रुव को बहुत दुःख हुआ और वह रोये हुए अपनी माँ के पास पंहुचा।
पुत्र ध्रुव की बात सुनकर माता सुनीत को बहुत दुःख हुआ। सुनीत ने पुत्र को समझते हुए कहा की हम सभी उस परमात्मा की संताने है ,वह परम पिता परमेश्वर ही सबका पिता हे। ध्रुव को यह बात बहुत जल्दी समझ आ गई ,ध्रुव अब ईश्वर को ही अपना असली पिता मानकर उसे प्राप्त करने की जिद करने लगा एक दिन ईश्वर की खोज में वह घर से निकल कर घनघोर जंगल में जाकर तपस्या करने लगा
ध्रुव के बारे में जब यह जानकारी नारद जी को मिली तो वे ध्रुव से मिलने के लिए आये। ध्रुव देखकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए और बालक समझकर तपस्या छोड़कर घर जाने की सलाह दी किन्तु ध्रुव न माने। तब नारद जी ने ध्रुव को हरी की उपासना के लिए मार्ग बताया और कहा कि तुम यमुना नदी पर मधुवन जा कर श्री हरि का भजन करो नारद जी ध्रुव को योग के नियम सयंम भी बताये ,ध्रुव ने भगवत प्राप्ति के नियम नारद से सीख कर वे मधुवन में तपस्या करने चले गए। ध्रुव भगवन विष्णु को खुश करने के लिए तपस्या करने लगे ,
इधर नारद जी ध्रुव के पिता उत्तानपाद से मिलते है और उत्तानपाद का समाचार लेते है ,उत्तानपाद अपना दुःख नारद जी को दुःख बताते है कि क्यों ध्रुव उन्हें छोड़कर चला गया है। वे ध्रुव के लिए दुखी थे। नारद जी उत्तानपाद को समझाते है कि ध्रुव प्रभाव आप नहीं जानते है ध्रुव बहुत तेजस्वी बालक है और शीघ्र ही घर वापस आ जायेगा।
ध्रुव ने इधर मधुवन और तपोवन में श्री हरि की नारद के बताये गए मार्ग के अनुसार उपासना की बहुत दिनों बाद ध्रुव ने अपने प्राण विश्वात्मा श्री हरि में लगा दिए जिससे जीवो की श्वास -प्रश्वास रुक गई। .सभी देवताओ और लोकपालों को इस से बैचेनी हुई और उन्होंने भगवान से पूछा की ऐसा क्यों हो रहा है ?तब भगवान् ने बताया कि ध्रुव ने अपने प्राण मुझमे जोड़ लिए है इसलिए संसार का श्वास प्रश्वास रुक गया है। देवताओ तुम जाओ मै ध्रुव को रोक दूंगा ,तुम डरो मत।
एक दिन श्री हरि ध्रुव के सामने आ ही गए और ध्रुव से कहा की तुम जिस पद की इच्छा कर रहे हो वह बहुत कठिनता से प्राप्त होता है फिर भी मै तुम्हे आशीर्बाद देता हूँ कि तुम संसार में जहां सप्तऋषि रहते है वहां स्थित रहोगे और सभी सप्तऋषि तुम्हारे चारो ओर ही चक्कर लगाएंगे तुम सभी नक्षत्रों के मध्य में रहोगे। जाओ अपने घर जाओ और अपने पिता की सेवा करो।
ध्रुव जो चाह रहे थे वह नहीं मिला क्योकि ध्रुव में अब भी यह याद था कि उन्हें उनकी सौतेली माँ से दुःख हुआ था और वे उसकी प्रतिक्रिया में विष्णु के चरणों में स्थान पाना चाह रहे थे जबकि विष्णु के चरणों में स्थान वही पा सकता है जिसकी सभी इच्छाएं समाप्त हो गई हो फिर भी भगवान ने उन्हें ध्रुव को अटल स्थान दिया।
ध्रुव के पिता ने जब यह सुना की ध्रुव अब घर आएंगे उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और वे स्वयं रथ लेकर अपने मंत्रियों के साथ ध्रुव को लेने आ गए। ध्रुव ने अपने पिता के पैर छुए और उनसे आशीर्वाद लिया। जब ध्रुव घर आ गए तो उनकी छोटी माँ ने उन्हें अपनी गौद में विठा लिया और ध्रुव को चूमने लगी।
आगे चलकर ध्रुव का विवाह प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ हुआ। भ्रमि से दो पुत्र हुए कल्प और वत्सर महाबली ध्रुव की दूसरी पत्नी का नाम था इला . इला से एक पुत्री और पुत्र हुआ उत्कल। ध्रुव का छोटा भाई उत्तम एक दिन शिकार खेलने हिमालय पर गया और उसे किसी यक्ष ने उत्तम को मार डाला। ध्रुव ने जब यह सुना तो वह यक्षो की नगरी में अलकापुरी में पहुंचा जहाँ भूत प्रेत ,पिशाच ,यक्ष थे।
ध्रुव और यक्षो में भयंकर युद्ध हुआ परन्तु ध्रुव ने सभी को मार कर भगा दिया। यक्षो की हार के बाद वे अलकापुरी में जाने लगे किन्तु वे यक्षो की नगरी में जा न सके और यह पता न कर सके की ये यक्ष क्या करते है। किन्तु जब ध्रुव ने जब नारायणास्त्र चलाया तो उनकी माया नगरी की माया समाप्त हो गई। जब ध्रुव जी यक्षो की नगरी मिटा रहे थे तब उनके पितामह [grand father] स्वयम्भू मनु उन्हें समझने आये की बेटा यह नरक का द्धार है ये यक्ष निर्दोष है इन्हे छोड़ दो तुम्हे सभी यक्षो को समाप्त नहीं करना चाहिए। ये कुबेर के अनुचर है ये तुम्हारे भाई को मारनेवाले नहीं है मारने वाले तो भगबान है। कुबेर तो भगवन शंकर के मित्र है।
यह सुनकर कुबेर भी वहां आ गए और ध्रुव से प्रसन्न होकर बोले तुम्हे जो मांगना हो मांग लो। तब इडविडा के पुत्र कुबेर ने ध्रुव को आशीर्बाद दिया कि ध्रुव को सदा ही श्री हरि का स्मरण बना रहे।
ध्रुव जी ने 36000 वर्षो तक राज किया। अंत समय में उन्होंने अपने पुत्र उत्कल को अपना राज सौंप दिया।इसके बाद वे बद्रिकाश्रम चले गए। और वहां उन्होंने फिर तपस्या की जब उन्हें यह तक याद न रहा कि वे ध्रुव है तब उनका कल्याण हुआ और वे श्री हरि के चरणों में स्थान पा सके। उन्हें लेने के लिए भगवान का एक पार्षद आया और उन्हें सप्तऋषियों से भी ऊपर जहां श्री हरि रहते है वहां पहुंच गए।
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