त्वष्टा और दधीचि Part AQ


व्रहमा के  पुत्र अंगिरा ऋषि थे। अंगिरा के पुत्र वृहस्पति थे । .वृहस्पति  देवताओं के गुरु थे। इंद्र देवताओं के राजा थे एक बार इंद्र अपनी पत्नी शची के साथ अपनी सभा में बैठे हुए थे। उनकी सभा में 49 मरुद्गण ,8 वसु ,11 रूद्र ,आदित्य ,ऋभु गण विश्वेदेव ,2 अश्विनी कुमार ,गंधर्व ,अप्सराएं ,किन्नर ,नाग आदि सभी उपस्थित थे तभी गुरु वृहस्पति वहां जा पहुंचे वे पूरी सभा के गुरु थे सभी ने उठकर उनका सम्मान किया और हाथ जोड़कर अभिवादन किया किन्तु इंद्र अपने ऐश्वर्य , वैभव और अहंकार के कारण अपने स्थान से नहीं उठे इसे वृहस्पति ने अपना अपमान समझा और वे सभा से  उठकर बाहर चले गए। 
वृहस्पति के चले जाने से इंद्र को दुःख हुआ और उन्हें अपनी गलती का अनुभव हुआ। इंद्र ने अपनी सभा में स्वयं निंदा की । इंद्र ने वृहस्पति का पता किया पर वे नहीं मिले। वृहस्पति के बिना इंद्र ने अपने आप को असुरक्षित समझा। तब देवताओ ने निर्णय लिया कि ब्रह्मा जी के पास जाकर समस्या का समाधान किया जाय। 
देवताओं के शत्रु असुर देवताओं को क्षति पहुंचाते थे और देवताओं के कार्यों में बड़ी रूकावट उत्पन्न कर दिया करते थे ,असुरो के गुरु शुक्राचार्य थे।  ब्रह्मा जी ने इंद्र और देवताओं से कहा कि तुमलोग अब त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाओ वे तुम्हारी मदद करेंगे।  त्वष्टा कश्यप की पत्नी अदिति के 12 पुत्रों में से एक थे। त्वष्टा की पत्नी का नाम था रचना जो एक असुर कन्या थी। 

इंद्र ने विश्वरूप के पास जाकर विनती की कि हम  तुम्हे आचार्य के रूप में स्वीकार करते है आप हमारी असुरो और शुक्राचार्य से सुरक्षा करे। विश्वरूप ने कहा कि किसी के पुरोहित बनाना उचित कार्य नहीं है इससे ब्रह्मतेज समाप्त होता है इसलिए धर्मशील महात्माओं ने इसकी निंदा की है। लेकिन इंद्र आप लोकेश्वर है आप मेरे स्वामी है इसलिए आपको मना नहीं कर सकता। 
विश्वरूप देवताओं के पुरोहित बन गए। विश्वरूप की माँ एक असुर थी अतः विषरूप में असुरों के भी लक्षण थे ,कहा जाता है कि विश्वरूप के 3 सिर थे एक सिर से सोमरस दूसरे से सुरा और तीसरे से अन्न खाते थे। साथ ही साथ वे चुपके से असुरों को भी यज्ञ भाग दे दिया करते थे। इससे इंद्र डर गए और उन्होंने विश्वरूप के तीनो सिर काट दिए। 
नाराज होकर विश्वरूप के पिता त्वष्टा ने श्राप दिया कि इंद्र के शत्रु असुर शीघ्र अभिवृद्धि करे। असुरों ने अपनी शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया। उन्होंने एक दैत्य को जन्म दिया जो बहुत ही भयंकर और कुरूप था जिसका शरीर पहाड़ की तरह काला और बिशाल था उन्होंने इसका नाम रखा वृत्तासुर। 

 वृतासुर ने देवताओं के विरुद्ध युद्ध शुरू कर दिया ,देवता उस दैत्य पर प्रहार करते किन्तु उसका कुछ न बिगाड़ पाते। देवता घबरा कर विष्णु के पुनः जाते है और वृत्तासुर के उत्पात से बचने का उपाय पूछते है। विष्णु भगवान उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के पास जाने को कहते है जो तपोनिष्ट ब्रह्मचारी हो ,उसकी हड्डियों से यदि कोई आयुध [अस्त्र ] बनाया जाय तो वृत्तासुर के प्रहार से बचा जा सकता है। 
तब देवता  दधीचि  के पास जाते है और प्रार्थना करते है कि यदि कोई ब्रमनिष्ठ तपस्वी अपनी अस्थियो को दान दे दे तो उससे एक वज्र [अस्त्र ] बन सकता है जिससे वृत्तासुर से सुरक्षा हो सकती है। दधीचि धर्म और देवताओं की भलाई के लिए अपना शरीर त्यागने को तैयार हो जाते है ,वे एक लम्बी श्वास लेते है और अपने प्राणो को नासिका से बाहर कर देते है। देवता उनकी अस्थियों को लेकर देवताओं के वास्तुकार विश्वकर्मा के पास जाते है ,विश्वकर्मा जी उन हड्डियों से एक वज्र बना देते है। देवता इसी वज्र से वृत्तासुर का वध [हत्या ] कर देते है। 
क्रमशः 













































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